मनरेगा ने ही छीना रोजगार...:टीकमगढ़ का गांव पोर्टल पर गलत पंचायत में दर्ज, रोजगार के लिए पलायन, घरों पर ताले

May 1, 2025 - 11:00
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मनरेगा ने ही छीना रोजगार...:टीकमगढ़ का गांव पोर्टल पर गलत पंचायत में दर्ज, रोजगार के लिए पलायन, घरों पर ताले
गांव में काम नहीं। हर परिवार से कम से कम एक पलायन। हर दूसरे घर पर ताला। यह हालात हैं टीकमगढ़ से 55 किमी दूर 200 आबादी वाले आदिवासी बहुल गांव गुजरायतन ऊगढ़ के। गांव में रोजगार न होने की वजह मनरेगा पोर्टल है। बल्देवगढ़ ब्लॉक की इमलिया पंचायत का गांव गुजरायतन ऊगढ़ मनरेगा के पोर्टल पर खरीला ग्राम पंचायत में दर्ज है। इमलिया ग्राम पंचायत की आईडी से गांव का नाम दिखाई नहीं देने से काम भी दिखाई नहीं देता। वहीं, खरीला ग्राम पंचायत की आईडी से गुजरायतन ऊगढ़ में काम दिखाई देता है, पर खरीला ग्राम पंचायत वाले इन्हें काम नहीं देते और न ही अपना आईडी शेयर करते हैं, इसलिए इमलिया पंचायत इन्हें काम नहीं दे पा रही। टीकमगढ़ जिला पंचायत सीईओ नवीत धुर्वे का कहना है कि पोर्टल में सुधार के प्रयास किए जाएंगे। हर परिवार से कोई न कोई बाहर गांव में 30 आदिवासी परिवार हैं, लेकिन ऐसा कोई परिवार नहीं, जिसका कोई सदस्य मजदूरी के लिए बाहर न हो। पूरन आदिवासी सहित उसके परिवार के 10 सदस्य बाहर हैं। घर पर केवल बुजुर्ग मां है। पिंटू आदिवासी, हरदयाल, लल्लाबाई समेत लगभग हर घर की यही कहानी है। गुना का कालीकराड... युवाओं का पलायन, गांव में सिर्फ बच्चे और बूढ़े गुना से अभिषेक शर्मा की रिपोर्ट चांचौड़ा से 23 किमी दूर पठार पर बसा गांव कालीकराड। करीब 100 आदिवासी परिवारों की बसाहट के इस गांव में बच्चे और बुजुर्ग ही दिखाई देते हैं। ज्यादातर युवा फसल कटाई के लिए राजस्थान गए हैं। हर साल फरवरी के अंतिम सप्ताह से पलायन शुरू हो जाता है। दो महीने तक राजस्थान में फसल काटने के लिए चले जाते हैं और मई की शुरुआत में वापस लौटते हैं। यह सिलसिला पिछले 70 वर्षों से चला आ रहा है। गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि पठार पर बसा होने से यहां जलसंकट है और लोगों के पास जमीन भी कम है। कालीकराड में अधिकांश आदिवासियों के पास दो से तीन बीघा जमीन ही है। गांव में सिर्फ बारिश के सीजन में एक फसल होती है। जमीन कम होने और स्थानीय स्तर पर काम नहीं मिलने की वजह से उन्हें पलायन करना पड़ता है। राजस्थान में मजदूरी से चार गुना तक अधिक कमाई गांव के नेनकराम भील बताते हैं कि करीब 70 साल से यह सिलसिला चल रहा है। फरवरी के अंत में पलायन शुरू होता है और होली तक लगभग सभी परिवार राजस्थान चले जाते हैं। यहां की तुलना में राजस्थान में चार गुना तक मजदूरी मिल जाती है। पहले ही राजस्थान में ठेके पर कटाई का काम ले लिया जाता है। आदिवासी मजदूर हर दिन 14 से 16 घंटे तक काम करते हैं जिससे एक दिन में औसतन 1500 रुपए तक की कमाई होती है। यह स्थिति सिर्फ कालीकराड गांव की नहीं है, बल्कि आसपास तीन से चार गांव ऐसे हैं जहां पर यही हालात हैं। मवेशियों का ख्याल रखने बच्चों-बुजुर्गों को छोड़ देते हैं गांव में मौजूद बुजुर्ग बताते हैं कि 10 साल से ज्यादा उम्र का बच्चा हो तो वह भी मजदूरी के लिए चले जाते हैं। यहां पर कई परिवार बकरी पालन भी करते हैं और इसलिए गांव में कुछ बुजुर्ग और घर के छोटे बच्चों को उनकी देखरेख के लिए छोड़ दिया जाता है।

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